इस देश के कर्मचारी करते हैं दुनिया में सबसे कम घंटे काम, कैसा है ये द्वीप देश, कैसी लाइफस्टाइल?

इस देश के कर्मचारी करते हैं दुनिया में सबसे कम घंटे काम, कैसा है ये द्वीप देश, कैसी लाइफस्टाइल?

एक तरफ जापान है, जहां के लोग हफ्ते में औसतन 60 घंटे काम के लिए जाने जाते रहे, वहीं एक सुस्ताता हुआ देश भी है- किरिबाती. प्रशांत महासागर के इस द्वीप देश के लोग दिन के 6 घंटों से भी कम काम करते हैं. इसे दुनिया में ‘शॉर्टेस्ट वर्क-वीक’ वाला देश माना जाता है. किरिबाती के लोग ज्यादा काम न करें, ये खुद वहां की सरकार तय करती है.

किरिबाती में काम के घंटे सबसे कम माने जाते रहे. (Photo- Unsplash)

किरिबाती में काम के घंटे सबसे कम माने जाते रहे. (Photo- Unsplash)

आज लेबर डे है. कर्मचारियों के हक और काम के घंटे पक्का करने के लिए सरकारें निजी कंपनियों पर भी नजर रखती हैं. वहीं दुनिया का एक मुल्क ऐसा भी है, जहां की सरकार तय करती है कि उसके नागरिक काम के पीछे ज्यादा भागदौड़ न करें. किरिबाती के सरकारी विभाग के अनुसार, लोगों से हफ्ते के पांच दिन अधिकतम 40 घंटे ही काम लिया जा सकता है. हालांकि लोग इससे भी कम काम कर रह हैं. यही कारण है कि साल 2022 में इस देश को सबसे कम वर्किंग-आर वाली जगह माना गया.

कोरल रीफ से घिरा हुआ है देश

किरिबाती प्रशांत महासागर के बीचोंबीच 33 द्वीपों का देश है, जिसकी राजधानी तरावा है. 8 सौ वर्ग किलोमीटर में फैले देश में केवल 20 पर ही बसाहट है. समुद्र के एकदम दूर बसे इस देश का पता लंबे समय तक किसी को नहीं लगा. 19वीं सदी में यूरोपियन घुमक्कड़ यहां आए और जल्द ही यहां ब्रिटिश राज हो गया. इसके बाद आना-जाना बढ़ता ही चला गया. दरअसल किरिबाती में रिंग के आकार के कोरल रीफ हैं. मूंगा की एक चट्टान यहां 388 वर्ग किलोमीटर तक फैली हुई है. गहरे और साफ समुद्र के कारण यहां डाइविंग के लिए भी दुनियाभर के एडवेंचर-प्रेमी आते रहे.

इस तरह का खानपान

दूसरे द्वीपों की तरह केले या दूसरे पेड़ कम ही लग पाते हैं. यहां तक कि अनाज और फल-सब्जियां भी ज्यादा नहीं होतीं. ऐसे में नारियल के पेड़ों से भरे द्वीप के लोग इसी पेड़ के आसपास खाने की कई चीजें बनाते रहे. वे इससे एक खास तरह का पय तैयार करते हैं, जो शराब से मिलता-जुलता है. पशुपालन की बात करें तो सुअर और मुर्गियां सबसे ज्यादा पाली जाती हैं.

यहां के लोग ऑस्ट्रोनेशियाई या फिर अंग्रेजी भाषा बोलते हैं. 19वीं सदी में ब्रिटेन के संपर्क में आने की वजह से अंग्रेजी ही इस देश की आधिकरिक भाषा हो गई.

kiribati shortest work week in the world photo Getty Images

कैसे हो रही गुजर-बसर

ईसाई-बहुल कती में साल 1979 तक आय का अकेला स्त्रोत फॉस्फेट की चट्टानें थी, जो दूसरे देशों को सप्लाई होती रहीं. फॉस्फेट खत्म होने के बाद नारियल के उत्पाद बेचे जा रहे हैं. विदेशी फिशिंग कंपनियां जो यहां सी-फूड के लिए आती हैं, उनसे लाइसेंस फीस ली जाती है. यूरोपियन यूनियन के साथ इसका टूना-फिश एग्रीमेंट है जो भारी मुनाफा देता है.

कुछ सालों पहले किरिबाती ने लंबा-चौड़ा इकनॉमिक जोन क्लेम किया गया. ये वो इलाका है जिसपर दावा केवल द्वीप देश ही कर सकते हैं. यहां वे अपना व्यापार-व्यावसाय करते हैं जो समुद्र से संबंधित हो. एक छोटा सेक्टर है जो कपड़े, फर्निचर और जरूरत की दूसरी चीजें बनाता है.

सरकार का लेबर विभाग रखता है नजर

किरिबाती की सरकार ने एक विभाग बनाया हुआ है, जो तय करता है कि लोग एक लिमिट से ज्यादा काम न करें. एम्प्लॉयमेंट एंड इंडस्ट्रियल रिलेशन्स कोड 2015 का एक सेक्शन मानता है कि उसके लोग हफ्ते के पांच दिन कुल मिलाकर 40 घंटों से ज्यादा काम न करे. ये काम का अधिकतम समय है यानी रोज के 8 घंटे. लेकिन ये केवल सरकारी नियम है. असल में काम के घंटे घटकर 5 से 6 घंटे हो चुके. स्टेटिस्टिका ने माना था कि साल 2022 में यहां लोगों के काम का औसत 28 घंटे से भी कम रहा.

kiribati shortest work week in the world photo Unsplash

क्यों काम के घंटे इतने कम

चूंकि यहां ज्यादातर काम समुद्र या उससे ही संबंधित हैं तो काम के घंटे घटते-बढ़ते रहते हैं. अक्सर तूफानी मौसम में लोग बाहरी काम नहीं कर पाते. ये बात भी काम के औसत घंटों पर असर डालती है. EIRC तय करता है कि अगर कोई पांच दिन और 8 घंटों से जरा भी ज्यादा काम करे तो उसे ओवरटाइम मिले, या अतिरिक्त छुट्टी. काफी समय तक दुनिया से अलग-थलग रह चुके देश में अब भी थोड़ा काम और ज्यादा आराम वाला कल्चर है.

किरिबाती से एकदम अलग वर्क कल्चर जापान में

यहां एक टर्म है- करोशी. यानी काम करते हुए मौत. दुनिया में इसे जापानी कल्चर की तरह देखा जाता रहा लेकिन जापान के युवा इसकी वजह से डिप्रेशन में जा रहे हैं. इसकी शुरुआत 20वीं सदी से ही हो चुकी थी, जब कर्मचारियों की दफ्तरों में ही हार्ट अटैक या स्ट्रोक से मौत होने लग. पता लगा कि ये कर्मचारी सप्ताह के 60 से 70 घंटे काम करते थे. सालाना 2 सौ वर्कप्लेस इंजुरी के क्लेम को सरकार करोशी की श्रेणी में रखती है, वहीं कैंपेनर्स का कहना है कि काम के चलते 10 हजार से ज्यादा जानें जा रही हैं. इसके लिए हेल्पपाइन भी चलती है- जिसका नाम है, नेशनल डिफेंस काउंसिल फॉर विक्टिम्स ऑफ करोशी. ये वर्क स्ट्रेल में रहते लोगों की बात सुनता है.

जापान के लोग अतिरिक्त काम के इतने आदी हो गए कि सरकार को उन्हें जबरन छुट्टियों पर भेजना पड़ा. इसके लिए साल 2018 की सरकार वर्क-स्टाइल रिफॉर्म बिल लेकर आई, जो लोगों को पेड-छुट्टियों पर भेजा जाने लगा. साथ ही ओवरटाइम की भी लिमिट तय हो गई, जो अलग-अलग काम में अलग थी.

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