अंग्रेजों को युद्ध में 7 बार कूटने वाले मेवाती आज इतने बदनाम क्यों हैं?

अंग्रेजों को युद्ध में 7 बार कूटने वाले मेवाती आज इतने बदनाम क्यों हैं?

हरियाणा के मेवात का इतिहास बहुत गौरवशाली रहा है. 19वीं सदी में जब अंग्रेज़ों का ज़ुल्मो-सितम चरम पर था, तब 1857 के आंदोलन की क्रांति ने देश के लोगों को अंग्रेज़ सरकार के सामने मुश्किल खड़ी कर दी. इस आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेज़ों ने आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर और उनकी बेगम की गिरफ्तारी के साथ उनके बेटों का कत्लेआम किया. फिर दिल्ली से सटे हुए मेवात में हजारों वीर क्रांतिकारियों को एक-एक कर फांसी पर लटका दिया.

अंग्रेजों को युद्ध में 7 बार कूटने वाले मेवाती आज इतने बदनाम क्यों हैं?

मेवात के क्रांतिकारियों की गौरवशाली गाथा

दिल्ली से कुछ ही दूरी पर रहने वाले मेवाती अक्सर किसी न किसी गलत वजह से खबरों की सुर्खियां बनते हैं. कभी दंगा तो कभी पशु चोरी तो कभी साइबर अपराध तो कभी अपनी रूढ़ीवादी सोच के चलते इन पर हर रोज़ ही सवाल उठते रहते हैं. लोग पूछते हैं कि मेवाती ऐसे क्यों हैं…क्यों वहां अशिक्षा और अपराध का बोलबाला है? आज बेशक मेवात की ये डरावनी तस्वीर हो लेकिन हकीकत ऐसी नहीं है. मेवाती बीते हजार साल से ऐसी कौम रही है जिनकी जिद और गुस्से ने दिल्ली के तख्त को हमेशा मुश्किल में डाला. फिर चाहे बलबन से लड़ाई हो या बाबर से या फिर अंग्रेजों से संग्राम. मेवाती हमेशा भारी ही पड़े हैं. आजादी की लड़ाई में मेवातियों ने देश के लिए बड़ी कुर्बानियां दीं. मेवात के नूंह, बड़कली, फिरोज़पुर झिरका में ऐसे कई शहीद स्तंभ हैं जिन्हें देखकर मेवातियों को लेकर आपका नजरिया बदल जाएगा. इन स्तंभों पर आज़ादी की पहली लड़ाई 1857 के गदर में बलिदान देने वाले मेवाती शूरवीरों के किस्से उनके नामों के साथ दर्ज हैं.

बलबन के ऊंट लूटे

सन् 1260 की बात है, गयासुद्दीन बलबन बड़े युद्ध अभियान पर निकलने वाला था कि तभी उसे पता लगा उसके शाही ऊंट तो मेवातियों ने लूट लिए हैं. हैरान परेशान बलबन गुस्से से भर गया. 9 मार्च 1260 को अचानक वह दिल्ली से 50 मील दूर मेवात में आ धमका. करीब 20 दिनों तक उसने मेवों का नरसंहार किया. बलबन इतने पर ही नहीं रुका उसने अपने सैनिकों से कहा कि जो भी मेवाती का सिर लाकर देगा वह उसे चांदी का सिक्का देगा और जो जिंदा मेवाती को लाकर देगा उसे वो 2 चांदी के सिक्के देगा. 29 मार्च को जब बलबन की सेना वापस दिल्ली लौटी तो उसके साथ 250 मेव मुखिया थे. 2 दिन बाद इनमें से कई को जनता के बीच फांसी लगा दी गई और कई हाथी से कुचलवा दिए गए. लगा कि मेव खत्म हो गए लेकिन मेव नहीं माने. कुछ ही दिन बाद उन्होंने बलबन की सेना पर गुरिल्ला हमने करना शुरू कर दिए. बलबन हैरान था कि कोई कैसे उसे चुनौती दे सकता है. बुरी तरह गुस्साए बलबन ने फिर मेवात का घेरा डाल दिया और करीब 12 हजार मेवातियों को मार डाला.

बाबर को चुनौती

बलबन से संघर्ष करना इतिहास की अकेली घटना नहीं है जब मेवातियों ने हैरान किया. इसके करीब 300 साल बाद बाबर ने जब दिल्ली की तरफ रुख किया तो उसके लिए भी मेवाती किसी मुसीबत से कम नहीं थे. 1526 में मेवातियों के मुखिया हसन खान मेवाती ने बाबर के खिलाफ राणा सांगा का साथ दिया. 1526 में जरूर उनकी हार हुई लेकिन मेवातियों ने हार नहीं मानी. वो लगातार बाबर की सेना पर हमला करते रहे. बाबर इससे काफी परेशान हो चुका था. उसका मानना था इसकी वजह हसन खान मेवाती है. बाबर ने मेवातियों पर जोरदार हमला किया. इस हमले ने मेवातियों के शासकों जिन्हें खानजादे भी कहा जाता था, को काफी नुकसान पहुंचाया लेकिन मुगल भी मेवातियों को दबा नहीं सके. उन्हें जब तब उनके विरोध का सामना करना पड़ता रहता था.

औरंगजेब भी परेशान

औरंगजेब के दौर में इकराम खान की अगुआई में मेवाती फिर संगठित हो गए. मुगल सेना पर लगातार हमले होने लगे. अपनी गद्दी के इतने करीब औरंगजेब को चुनौती मिल रही थी. परेशान औरंगजेब ने 1685 में राजा जय सिंह की अगुआई में मेवात में एक सेना भेजी. काफी मुश्किलों के बाद मेवाती काबू में आ सके. अलवर का किला बड़े संघर्ष के बाद मुगलों से वापस लिया गया. बाद में राजा जय सिंह को इस इलाके का प्रशासक नियुक्त कर दिया गया.

अंग्रेजों को 7 बार हराया 1857 के गदर के दौरान अंग्रेजों को जिनसे सबसे ज्यादा खौफ आता था वो मेवाती ही थे. इस दौर में लिखे गए इतिहास के पन्ने मेवातियों के खून से रंगे हुए हैं. इस विरोध की कीमत उन्होंने फिर कभी संगठित और मजबूत न होकर चुकाई. ये एक ऐसा झटका था जिसकी धमक आज भी मेवात के इलाके में महसूस होती है. दरअसल मेरठ में 1857 की क्रांति की चिंगारी से उठी आग की लपटें जब मेवात पहुंचीं तो यहां के लोगों ने भी इस लड़ाई में हिस्सा लेने की ठान ली. मेवातियों ने अंग्रेज़ों के खिलाफ एक खास रणनीति बनाई.

मेवातियों ने अंग्रेज अधिकारी फरसन को मार डाला

1857 की क्रांति की शुरुआत 10 मई को मेरठ से हुई थी. 11 मई 1857 की सुबह क्रांतिकारी दिल्ली पहुंच गए. 12 मई को क्रांतिकारियों ने गुड़गांव में अंग्रेजों के ठिकानों पर हमला कर दिया था. गुड़गांव के आसपास मेवातियों के बहुत से गांव थे, आज जिस जगह गुड़गांव का रेलवे स्टेशन है तब वहां मेवों का ‘हरनौल गांव’ हुआ करता था, इस गांव के मेवाती क्रांति की लड़ाई में शामिल हो गए और 13 मई को आस-पास के मेवों ने नूंह स्थित अंग्रेजों के ठिकानों पर जोरदार हमला कर दिया. मेवों-अंग्रेजों के बीच ये लड़ाई करीब 3 दिन तक चली. युद्ध में मेवाती अंग्रेज़ सिपाहियों पर भारी पड़े. कई सिपाहियों को मेवातियों ने मारा डाला. लड़ाई में अग्रेजों का बड़ा अधिकारी मैक फरसन भी मारा गया. नूंह और पूरा मेवात नवंबर 1857 तक आजाद रहा था.

कैप्टन विलियम हार कर भागा

दिल्ली पर कब्जा करने के लिए अंग्रेजों ने प्लान बनाया था, जिसके मुताबिक जनरल विलिंग्सन को उत्तर की तरफ से हमला करना था, जॉन लॉरेंस को पंजाब की तरफ से, हड़सन को पूर्व की तरफ से, कैप्टन विलियम ईडन को दक्षिण कर तरफ से हमला करना था. जब कैप्टन विलियम मेवातियों पर हमला करने आ रहा था तो उसे सोहना के पास क्रांतिकारी मेवातियों की सेना ने घेर लिया. कैप्टन विलियम ईडन ने अपनी डायरी में लिखा था कि अगर मेरे पास उस वक्त तोप नहीं होती तो ईश्वर जानता है कि मेरे साथ क्या होता. उसके बाद वो पलवल की तरफ चला गया और होडल-पलवल के बीच क्रांतिकारियों के हमले में घायल होने के बाद वापस जयपुर भाग गया.

अंग्रेज फिर हारे, क्लीफोर्ड का कत्ल

सितंबर 1857 में अंग्रेजी हुकूमत ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया और अक्टूबर में अंग्रेजों को खबर मिली कि रायसीना में मेव जमा हो रहे हैं. दिल्ली के कमिश्नर क्लीफोर्ड ने रायसीना गांव पर हमला किया, इस लड़ाई में क्लीफोर्ड मारा गया, अंग्रेज़ सेना हार कर भाग गई. उसके बाद अंग्रेजों ने जोरदार हमला करके रायसीना पर कब्जा कर लिया. नवंबर 1857 में अंग्रेजों को खबर मिली कि भले ही दिल्ली पर उनका कब्जा हो गया हो, लेकिन मेवात अभी उनसे आजाद है. मेवात पर कब्ज़ा करने के लिए आए अंग्रेजों के जनरल सावर्स ने सोहना को अपना अड्डा बना लिया था. वो नवाब झज्जर और राजा बल्लभगढ़ी को गिरफ्तार करके अपने साथ ले गए और कैप्टन डायमंड को मेवात का इंचार्ज बना दिया.

मेवातियों की आखिरी लड़ाई

कैप्टन डायमंड को खबर मिली कि मेव रूप्रका गांव में जमा हो रहे हैं और पलवल पर हमला करने की तैयारी में हैं. कैप्टन डायमंड ने एक अंग्रेजी सेना भेजी. रूप्रका में अंग्रेजी फौज और क्रांतिकारियों के बीच भीषण लड़ाई हुआ जिसमें 400 क्रांतिकारी शहीद हो गए. वहां के अंग्रेज इंचार्ज ने लिखा कि हमने मेवातियों पर काबू पा लिया है. लड़ाई में मेवातियों को काफी जान-माल का नुकसान उठाना पड़ा था. उसके बाद 1857 की क्रांति की आखिरी लड़ाई नूंह में हुई. 29 नंवबर को इस लड़ाई में पिहोवा के सरफुद्दीन ने अंग्रेजों को घेरने के लिए मोर्चा संभाल लिया था. पिहोवा से अंग्रेजी कैप्टन रामसे रास्ते में मिलने वाले हर गांव में आग लगाता चला गया. फिर नूंह में लड़ाई हुई. उसे लड़ाई में सत्तर लोग मारे गए. यह अंग्रेजों के साथ मेवातियों की आखिरी लड़ाई थी.

अंग्रेजों का धोखा

फरवरी 1857 में अंग्रेजों ने मेवातियों से कहा कि अब पूरे मेवात पर अंग्रेजों का कंट्रोल हो गया है इसलिए हम आपसे समझौता करना चाहते हैं. अंग्रेजों की समझौते वाली बात पर मेवात के कुछ लोगों को भरोसा नहीं था. उनका कहना था कि ये फिरंगी हैं इन पर हम भरोसा नहीं करते हैं लेकिन समाज के कुछ जिम्मेदार लोग नूंह पहुंचे तो उन सभी को अंग्रेज़ों की सेना ने घेर लिया, नूंह के पुराने बस अड्डे के पास एक बड़ा कुआं था और उस कुंए के साथ एक बड़ा सा बरगद का पेड़ लगा था. उस बड़ के पेड़ पर 52 मेवाती क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया गया. अंग्रेजों ने बहुत सारे मेवातियों को गिरफ्तार कर लिया और उनको दिल्ली के चांदनी चौक में ले जाकर फांसी पर लटका दिया.

इतिहासकार और समाजसेवी सिद्दीक अहमद मेव ने अपनी किताब ‘संग्राम ऑफ 1857 में मेवातियों के योगदान’ में लिखा कि इस क्रांति के समय मेवात तीन हिस्सों में बंटा हुआ था. जिला गुड़गांव, जिला अलवर और जिला भरतपुर हुआ करते थे. गुड़गांव में मेवों की अबादी उस समय लगभग 1,10,400 थी, जहां 30 फीसदी जमीन मुस्लिम मेवों के पास थी. हरियाणा के बादशाहपुर तक का इलाका मेवात में शामिल था. इस एक लाख दस हज़ार चार सौ की आबादी ने 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ 7 युद्ध लड़े थे. नूंह, तावडू, रायसीना, घासेड़ा, रूपडाका, दोहा और नंदी में क्रांतिकारियों और अंग्रेजों के बीच ये सात युद्ध हुए थे. किताब में मौजूद आंकड़ों के अनुसार 1043 लोगों को फांसी दी गई थी, जिनमें नूंह, फरीदाबाद, गुड़गांव जिले के मेवाती क्रांतिकारी शामिल थे. जबकि इन आंकड़ों में आमने-सामने की लड़ाई में शहीद होने वालों का नाम शामिल नहीं है. सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक, अंग्रेज़ों के खिलाफ 1857 की लड़ाई में शहीद होने वालों की संख्या 6 से 10 हजार के बीच है.

इतिहासकार रवि भट्ट ने बताया कि भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में मेवात के लोगों ने बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. मेवात के खासकर रूपडाका गांव,मालपुरी गांव, जिंद गाव के लोगों ने अंग्रेजी फौज के साथ जमकर संघर्ष किया था. कुछ गद्दारों की वजह से अंग्रेजों ने अपनी पूरी ताकत के साथ मेवात के गांव पर हमला किया और मेवात के गांव को पूरी तरह से तहस-नहस कर मेवाती क्रांतिकारियों को एक-एक कर फांसी पर लटकाते गए.

मेवात के हर बरगद पर दी गई मेवातियों को फांसी

मेवात के बुजुर्ग बताते हैं कि मेवात के क्रांतिकारियों को बड़ (बरगद) के पेड़ पर लटका कर फांसी दी गई थी. क्रांतिकारियों की संख्या इतनी थी कि फांसी के लिए बड़ के पेड़ और फांसी की रस्सी तक कम पड़ गई थी जिसके चलते अंग्रेजों ने एक रस्सी से तीन-तीन क्रांतिकारियों को फांसी के फंदे पर लटकाया था. मेवात के लोग लंबे समय से सरकार से अपील कर रहे हैं कि भारत की आजादी की लड़ाई में शहीद होने वाले उनके पूर्वजों को सम्मान देने के लिए उन्हें शहीद का दर्जा देने के साथ ही उनकी वीरता के किस्सों को हरियाणा के स्कूलों और कॉलेजों की पाठ्यक्रम की पुस्तक में शामिल भी किया जाए.

मेवात के शहीद स्तंभ

आजादी के बाद भारत सरकार ने 1857 के मेवाती शहीदों की कुर्बानियों को याद करते हुए मीनार की तरह दिखने वाले शहीद स्तंभों का निर्माण कराया, हर साल शहीद दिवस के अवसर पर 1857 के शहीदों को याद कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है. मेवात के कई इलाकों में खामोश खड़े शहीद स्तंभ यहां के वीर शहीदों की दास्तान बयान करते हैं. मेवात के रूपडाका गांव के 425 वीर क्रांतिकारियों को 19 नवंबर 1857 को एक साथ फांसी दे दी गई थी.

  1. मेवात में स्थित शहीद स्तंभ

क्या मेवात की इमेज खराब की गई?

मशहूर कहानी और उपन्यास लेखक भगवानदास मोरवाल जो मेवात पर काला पहाड़, बाबल तेरा देस में, नरक मसीहा, कांस और रेत जैसी किताबें लिख चुके हैं, कहते हैं कि मेवात को लेकर जो नैरेटिव बनाया जा रहा है वो आज का नहीं है. 1970 के दशक में भी हम मेवात को लेकर इस तरह की बातें सुनते थे, कई बार गलत और झूठी बातों को मेवात से जोड़कर प्रचार किया गया. मेवात का भाईचारा इस ग्रामीण इलाके में एक मिसाल है. 1990 में जब पहली रथ यात्रा निकली थी तो लोगों में बड़ा डर का माहौल था, गैरमुस्लिम डरे हुए थे, लेकिन कुछ नहीं हुआ. फिर 1992 में ढांचा गिराए जाने के बाद माहौल खराब हुआ, फिर भी यहां कोई सांप्रदायिक हिंसा की घटना नहीं हुई. यहां सब किसान लोग हैं जिन्हें सिर्फ अपनी खेती से मतलब है. पिछले साल भी यहां माहौल खराब करने की कोशिश हुई, मगर यहां के मेवों ने अपना भाईचारा बनाए रखा. 1980 के दशक से यहां से शहरों की तरफ पलायन काफी तेज़ी से हुआ क्योंकि रोज़ी रोटी का संकट पैदा हो रहा था.

भगवानदास मोरवाल ने कहा कि पिछले कुछ सालों में मेवात गलत कारणों से चर्चा में रहा है. ये सिर्फ यहां का मसला नहीं है, बल्कि अपराध तो हर जगह हो रहा है, मगर ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि मेवात को ज़्यादा बदनाम किया जाता है. यहां के लोगों की समस्याओं को समझकर उनके निदान की कोशिश नहीं की जा रही है. मेवात में रोज़गार नहीं है, यहां पढ़ाई का स्तर ठीक नहीं है, स्कूलों में बच्चे पढ़ने जाते हैं मगर टीचर नहीं होते. ऐसे में मेवात के बच्चों का भविष्य क्या होगा, जब न तो ढंग से पढ़ाई होती है और न ही रोज़गार है. नतीजा यही सामने आता है कि कुछ युवा गलत रास्ते पर भटक जाते हैं. सरकार को इसके बारे में सोचना चाहिए और इस समस्या का समाधान करना चाहिए.

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